गम के समंदर में खुशियों की मोती ✍ संजीव मण्डल
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कविता के गाल पर झन्नाटेदार झापड़ पड़ा । वह कई कदम हिल गई और गिरते-गिरते बची । उसका दोष यह था कि उसके कमर से मिट्टी का घड़ा जो वह पानी से भरकर ला रही थी वह गिरकर चकनाचूर हो गया था । कविता ने न रोने की लाख कोशिश की पर उसकी रुलाई फूट पड़ी।
“हरामी! तेरे बाप को आने दे । एक ही घड़ा था, वह भी तोड़ दिया । अपनी खोपड़ी में पानी भरकर लायेगी अब।”
कविता सिसकती रही । कविता की बूढ़ी दादी बाहर का हंगामा सुनकर झोपड़ी से बाहर दौड़ती सी आई । क्या हुआ यह जानने में दादी को कुछ ही पल लगे । गीली जमीन पर टूटे पड़े घड़े के टुकड़ों और सिसकती कविता के लाल गाल को देखकर दादी सब समझ गई ।
कविता फूल सी कोमल और कलियों के उम्र की थी । इस छोटी सी लड़की की ऐसी हालत उसके माँ के गुजरने के बाद भी नहीं हुई थी । पर जब बाप दूसरी शादी कर लाया तब उसके किस्मत के सितारें बूझ गए । हर रोज खड़ी-खोटी सुनना, लात-झापड़ खाना उसकी किस्मत बन गई थी । दादी सोचती उसके रहते ही ऐसी हालत है उसके मरने पर न जाने बच्ची को यह डायन जिंदा भी छोड़े या नहीं ।
घड़े में पानी का वजन और दिनों को तो कविता सम्भाल लेती थी पर कल रात से ही कविता को बुखार था और कमजोरी महसूस हो रही थी । छलकते घड़े को वह किसी तरह सम्भाल-सम्भालकर ला तो रही थी पर आँगन में पहुँचकर घड़े को उतारते वक्त कविता को चक्कर सा आ गया और घड़ा हाथ से छूट गया और यह सर्वानाश हो गया ।