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September 8, 2024

असमीया भाषा की अनमोल निधि सप्तकांड रामायण का हिंदी पद्यानुवाद (पद संख्या 1 से 10 तक)

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✍ डॉ. रीतामणि वैश्य

भारतीय समाज में भक्ति सर्वकाल से महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आयी है। भारतवर्ष में भक्ति की अनेकानेक पद्धतियों में प्राचीन काल से ही वैष्णव भक्ति की धारा प्रवाहमान रही है। विष्णु के अवतारों में से राम और कृष्ण सर्वाधिक लोकप्रिय रहे हैं। इन दोनों अवतारों की लीलामालाओं को लेकर देश-विदेशों में अनेक मठ एवं मंदिरों का निर्माण हुआ है । इन मठ-मंदिरों में वैष्णव भक्त श्रवण,कीर्तन करते हैं। साथ ही देश-विदेशों में लिखे गये राम और कृष्ण भक्ति से संबन्धित सैकड़ों ग्रन्थों से इन दो अवतारों की महिमा की चर्चा की गयी। भारत के इन साहित्यिक धरोहरों में से मर्यादापुरोषोत्तम राम के जीवन पर आधारित महाकाव्य रामायण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 

महाकवि वाल्मीकि ने सबसे पहले संस्कृत भाषा में रामायण की रचना की थी। उसके बाद वाल्मीकि रामायण को आधार मानकर अनेक भाषाओं में अनेक रामकथाएँ लिखी गयीं। असम में माधव कंदलि ने असमीया भाषा में रामायण की रचना की थी । माधव कंदलि चौदहवीं सदी के असम के पूर्वमध्यांचल के अधिपति बाराह राजा महामाणिक्य के राजकवि थे। कंदलि का रामायण उत्तर भारत की प्रांतीय भाषाओं में लिखित प्रथम रामायण है। आपने महाकवि वाल्मीकि विरचित संस्कृत रामायण का असमीया अनुवाद किया था। माधव कंदलि  के अतिरिक्त  शंकरदेव, माधवदेव ,अनंत कंदलि ,दुर्गावर, रघुनाथ महंत, शिष्ट भट्टाचार्य सहित कई कवियों ने असमीया भाषा में रामायण का प्रणयन किया था ।

          असम का वैष्णव-युग केवल असम के लिए ही नहीं, भारतीय वैष्णव भक्ति के लिए  भी बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस युग में शंकरदेव ने ‘एक शरण हरि नाम धर्म’ की स्थापना कर  असम के साधारण  लोगों  को विष्णु भक्ति की मधुरता से आह्लादित किया था। उनके साथ माधवदेव जैसे भक्तों ने वैष्णव साहित्य का एक विराट अक्षय भंडार हमें दिया । शंकरदेव से पहले भी असम में वैष्णव भक्ति की धारा प्रवाहित थी। प्राक शंकरी युग की वैष्णव भक्ति परंपरा में माधव कंदलि के रामायण का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। शंकरदेव की भक्ति पद्धति और साहित्य के साथ कंदलि रामायण की भावभूमि की पर्याप्त समानताएँ पायी जाती हैं।  

          हो सकता है कि माधव कंदलि का रामायण सप्तकाण्ड का था; पर उनके रामायण में ‘बालकाण्ड’, ‘अयोध्याकाण्ड’, ‘अरण्यकाण्ड’, ‘किष्किन्ध्याकाण्ड’, ‘सुंदरकाण्ड’, ‘लंकाकाण्ड’ और ‘उत्तराकाण्ड’ में से प्रथम भाग ‘बालकाण्ड’ और अंतिम भाग  ‘उत्तराकाण्ड’ नहीं मिले। शंकरदेव ने असमीया भाषा में रामायण को पूर्णता देने के लिए अपने शिष्य माधवदेव से ‘आदिकाण्ड’ का अनुवाद करवाया और आपने स्वयं ‘उत्तराकाण्ड’ का अनुवाद किया। एक-दो चरित पोथियों के अनुसार माधवदेव और शंकरदेव ने क्रमशः ‘आदिकाण्ड’ और ‘उत्तराकाण्ड’ की रचना के अतिरिक्त कंदलि के रामायण के पांचों खण्डों के अंत में भक्तिमूलक उपदेशों का संयोजन भी किया है। समीक्षक डॉ॰ सत्येन्द्रनाथ शर्मा का मानना है कि कंदलि के रामायण के पाँच खण्डों के प्रारंभिक या अंतिम दो-तीन छंदों में यह संयोजन संभव हो सकता है ; पर मूल कथा में उनके संयोजन का प्रमाण नहीं मिलता। यह संयोजन स्वीकार कर लेने पर भी कंदलि रामायण में वैष्णव भक्ति की तमाम विशेषताएँ पायी जाती हैं।

          असमीया साहित्य का भंडार अति प्राचीन और समृद्ध है। इस बात की पुष्टि के लिए कंडलि का रामायण ही पर्याप्त है। इस प्राचीन एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रचना के पद्यानुवाद करने का यह पहला प्रयास है।यहाँ अनुवाद के संदर्भ में अपनायी गयी नीतियों पर प्रकाश डालना आवश्यक होगा। इस कृति को पदानुक्रम से पहले लिप्यंतरण किया गया है और फिर पदों के अर्थ रखे गए हैं। लिप्यंतरण में उच्चारण की अपेक्षा शब्दों की व्युत्पत्ति पर अधिक ध्यान दिया गया है। इससे शब्दों की मूल आत्मा सुरक्षित रहेगी। असमीया भाषा में ‘स’ उच्चारणवाले दो वर्ण हैं- ‘च’ और ‘छ’। असमीया भाषा में ‘स’ के लिए कोमल ‘ह’ का उच्चारण होता है। असमीया के ‘स’,’च’ और ‘छ’ इन तीनों वर्णों के लिए हिन्दी लिप्यंतरण में क्रमशः ‘स’, ‘च’ और ‘छ’ रखे गए हैं।  हिन्दी भाषा के ‘य’ वर्ण के लिए असमीया भाषा में दो वर्ण प्रयुक्त होते हैं-एक का उच्चारण ‘य’ ही है और दूसरे का उच्चारण ‘ज’ होता है। असमीया ‘य’ के लिए हिन्दी में भी ‘य’ रखा गया है। असमीया ‘य’ के  ‘ज’ वाले  उच्चारण के लिए लिप्यंतरण में ‘य’ रखा गया है।

          इतना तो अवश्य है कि प्रयास में त्रुटि नहीं रहेगी। असमीया साहित्य के रस से हिन्दी के पाठकों को परिचित कराने के लक्ष्य से यह दुःसाहस कर रही हूँ। आशा करती हूँ कि प्रभु राम की कृपा से यह काम सम्पन्न कर पायूँगी।

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