डॉ. अनिल बोडो से एक मुलाकात
1 min readअसम के बाग्सा जिले के काहितमा गांव में 9 दिसंबर सन 1961 को डॉ. अनिल बोडो का जन्म हुआ। उनका परिवार मूलत कृषि प्रधान परिवार था। पिता चाहते थे कि उनका बेटा भी उनके समान कृषि कार्यों में उनका हाथ बटाएं। पर डॉ बोडो की साहित्य और शिक्षा के प्रति रुचि ने उन्हें कॉलेज के दिनों से ही लेखन क्षेत्र की राह दिखा दी। गुवाहाटी विश्वविद्यालय से लोक साहित्य विषय में पी.एच.डी. करने के बाद वे सन् 1998 में गुवाहाटी के समीप डिमोरिया कॉलेज में बतौर व्याख्याता नियुक्त हुए। सन् 2000 में गुवाहाटी विश्वविद्यालय के लोक साहित्य विभाग में बतौर व्याख्याता आपकी नियुक्ति हुई और वर्तमान में आप गुवाहाटी विश्वविद्यालय के लोक साहित्य विभाग में बतौर विभागाध्यक्ष कार्यरत हैं। अपनी मातृभाषा बोडो में अपने रचनात्मक लेखन को प्राथमिकता देने वाले डॉक्टर अनिल बोडो बोडो भाषा के अतिरिक्त अंग्रेजी और असमिया भाषा में भी लेखन कार्य करते हैं। अब तक उनके सात कविता संग्रहों का प्रकाशन हो चुका है। इसके अतिरिक्त तीन यात्रा वृतांत, अंग्रेजी भाषा मैं कई महत्वपूर्ण प्रकाशन, साहित्य अकादमी के लिए बोडो भाषा में अनेक संग्रहों का संपादन, 4 से अधिक अंग्रेजी भाषा के लिए समीक्षात्मक निबंधों का संग्रह, साहित्य की समीक्षा पर पुस्तकें, अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन, अनुवाद कार्य, बाल साहित्य लेखन आदि का कार्य भी आपके लेखकीय सृजन की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में हैं। बोडो साहित्य सभा द्वारा रंगसर थुनलाई पुरस्कार तथा अनेक पुरस्कारों से सम्मानित डॉ अनिल बोडो को वर्ष 2013 का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार उनके काव्य संग्रह
‘देलफिनि अन्थाई मोदाई आरो गुबुन गुबुन खन्थाइ’ के लिए दिया गया। प्रस्तुत है अनेक देशों की साहित्यिक यात्रा करने वाले डॉ अनिल बोडो के साक्षात्कार के प्रमुख अंश–
प्रश्न 1– बोडो साहित्य में विकसित विधाएं कौन-कौन सी हैं?
उत्तर– बोडो साहित्य, लेखन की सभी विधाओं में लिखा गया है। जहां स्वतंत्रता से पहले मिथक, मंत्र, दंत कथाएं, लोक कथाएं मौखिक थे, वहीं कविताएं और ड्रामा हस्तलिखित थे। बंगाल के जात्रा नाटक / थियेटर का बोडो नाटक और साहित्य पर काफी प्रभाव था। बहुत से बोडो लेखकों ने समाज के उत्थान और सुधार की दृष्टि से अनेक नाटक लिखे। सतीश चंद्र बसुमतारी ने पहला बोडो ड्रामा ‘जात्रा डोल’ में प्रदर्शन के लिए लिखा। इसके साथ-साथ कई असमिया और बांग्ला नाटकों का भी बोडो भाषा में अनुवाद हुआ और गांव- देहातों में जाकर इनका प्रदर्शन भी हुआ। शादी – विवाह और अन्य उत्सवों और अवसरों पर इसका प्रदर्शन होना अनिवार्य था और सन् 1940 से सन् 1960 तक यह अपने पूरे जोरों पर था। प्रमोद चंद्र ब्रह्म द्वारा संपादित मैगजीन ‘हाथोरखी हाला’ में सन् 1940 में ईसान मुसाहारी द्वारा लिखित प्रथम लघुकथा ‘आबारी’ प्रकाशित हुई।
प्रश्न 2—आप अपनी कविताओं के क्रमिक विकास के विषय में कुछ बताएं। उसमें किस प्रकार से नए विषय और नई सोच जुड़ती गई, उसके विषय में भी बताएं।
उत्तर—मैंने सबसे पहले मैंने रोमांटिक कविताओं से कविताएं लिखना प्रारम्भ किया। मेरा पहला काव्य संग्रह ‘सैन मव्खनगारी सिमंग’ मेरे सपनों पर लिखी गई कविताओं के बारे में हैं। इसमें अधिकांश कविताएं इस संसार को नई ऊर्जा, नई ऊष्मा देने वाले सूरज से संबंधित है। प्रत्येक दिन एक नया सूर्योदय होता है और प्रत्येक शाम एक नया सूर्यास्त। ये मेरी आदर्शवादी लेकिन काल्पनिक कविताएं उसकी ओर आगे बढ़ने को लेकर है। मेरा दूसरा काव्य संग्रह ‘आंनि गैमिआओं टि्वजलांग’ था, जिसका अर्थ है, ‘मेरे गांव की बारिशों के दिन।’ इसमें मेरी कविताएं मेरे गांव के लोगों के बारे में है, खेतों में काम करते किसानों के बारे में हैं। अपने इस संग्रह में मैंने बारिश के मौसम में खेत -खलिहानों में किसानों के संघर्ष को, उनके द्वारा किए जा रहे कठिन परिश्रम को शब्द दिए हैं। जब मैंने कविताएं लिखना प्रारंभ किया तो वे एक नवयुवा की सोच और उसके विचारों के शब्द थे, उसकी लेखनी थी। समय के आगे बढ़ते दौर में मेरी सोच परिपक्व होती गई और साथ ही साथ मेरी लेखनी भी।
इन दोनों कविता संग्रहों के बाद मेरा अगला कविता संग्रह ‘डेल्फिनि ओंथै मुदाई आरव गुब्बान कोंठे’ आया, जिसके लिए मुझे सन् 2013 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। यह कविता संग्रह मूलतः एक यात्रा वृतांत है। जब मैं ग्रीस की अपनी यात्रा पर गया था, तब मुझे वहां मुझे इस विषय पर कविताएं लिखने की प्रेरणा मिली। विदेशों के प्राकृतिक दृश्यों, विभिन्न विचारों को मैंने इस संग्रह में अपने गांव के परिप्रेक्ष्य में लिखा है। मैंने इनको अपने क्षेत्र की स्थानीय सभ्यता और दर्शन के साथ भी जोड़ा है। इस संग्रह की अपनी कविताओं के द्वारा मैंने दिखाया है कि ग्रामीण परिवेश का शहरीकरण किस प्रकार हुआ। इस संदर्भ को प्रस्तुत करने के लिए मैंने यहां रोम को एक उदाहरण के रूप में प्रयुक्त किया है।
इस प्रकार मेरे पहले और दूसरे कविता संग्रहों में मेरी छवि एक रोमांटिक कवि की है। मैंने मानवीय संबंधों पर भी कविताएं लिखी हैं और मानवीय रिश्तों की जटिलता पर भी। इनमें मेरी कुछ कविताएं प्रकृति के ऊपर भी हैं। जबकि मेरा तीसरा काव्य संग्रह इससे अलग है जो कि स्थानीय सभ्यता और दर्शन को विदेशी सभ्यता और दर्शन से जोड़ता है।
प्रश्न 3—आपको किस तरह की कविताएं प्रसन्नता देती है? आपकी कौन सी आत्मिक कविता आत्मानुभव के लिए लिखी गई हैं और कौन सी सामाजिक कविता परानुभव के लिए लिखी गई हैं ?
उत्तर—मैंने सभी तरह की कविताएं लिखी हैं। रोमांटिक, प्रेम कविताऐं, सामाजिक, प्रकृति के ऊपर आदि विभिन्न विषयों पर मैंने अनेकों कविताएं लिखी हैं। यूं तो सभी तरह की कविताएं मुझे खुशी देती हैं लेकिन अंततः यह भी मन की प्रकृति पर निर्भर करता है। हमारी जैसी मन की भावनाएं होती है, उसी तरह की कविताएं भी हमें अच्छी लगने लगती हैं। मन की प्रकृति के अनुसार उनमें विषयों का परिवर्तन होता रहता है। हां, यह सही है कि जब मैं कविता लिखता हूं तो कभी-कभी अंतर्मुखी हो जाता हूं। मेरी यह एक कविता मुझे आत्मानुभूति प्रदान करती है।
एक आसमान
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मेरे पास अपना एक आसमान है
एक आसमान
कविता
एक एकांत का बगीचा
शांति का एक आनंदित छण मेरे पास है
मेरा अपना एक घर
जहां मैं अपने हृदय से मिलता हूं और बातचीत करता हूं
शब्द शब्दों को चूमते हैं जैसे
एक हृदय दूसरे का आलिंगन करते
यह मेरी एक कविता परानुभव को दर्शाती है–
शांति पक्षी
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उड़कर पहुंचने दो शांति पक्षी को मेरे पास
धमाके के गहरे धूम्र के पश्चात
कोमल हवा के झोंको को बहने दो
निर्दयी हत्याओं की पशु क्रुरता के बाद
बच्चों के होठों पर मासूम मुस्कान खिलने दो
और नए उदय होते सूरज का स्वागत करना है
एक समाप्त होती पीढ़ी को परिवर्तित करने के लिए
जो कि एक लौह हृदय होने का दिखावा करती है
मशीन से बना हुआ एक हृदय
प्रश्न 4—क्या आपने कभी बोडो जनजाति की मानसिकता या खूबियों के बारे में अपनी कविता में लिखा है? हम शहरवासियों को उनसे क्या सीखना चाहिए और उन्हें भी हम शहर वासियों से क्या सीखना चाहिए?
उत्तर—आदिवासी जातियों और जनजातियों की जिंदगी में आदर्शों और मूल्यों का हमेशा से ही एक बहुत बड़ा स्थान रहा है। हम शहर वासियों को उनसे उनके आदर्शों और मूल्यों की सीख लेनी चाहिए। उसके ऊपर भी मैंने कविता लिखी है। वैश्वीकरण के दौर में बोडो जनजाति के लोगों की भी रोजमर्रा की जिंदगी में अब बदलाव आ रहा है, इस बदलाव को भी मैंने अपनी कविता में लिखा है। हमें अपनी प्रकृति को, अपने जीव-जंतुओं को, अपने हरे- भरे खेतों को कैसे बचाना है और अपनी प्रकृति को किस प्रकार से प्यार करना चाहिए, यह हमें उनसे जरूर सीखना चाहिए। इसके संबंध में मैंने अपनी एक कविता ‘ जंगल में आग’ में लिखा भी है। इसके अतिरिक्त भी ऐसी बहुत सारी कविताएं हैं, जिनमें मैंने इसके बारे में लिखा है।
जंगल में आग
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उन्होंने अपनी झोपड़ियां जंगल में बना ली
उन्होंने अपने घरों को वन में बना लिया
किसके लिए उन्होंने जंगल को साफ किया
किसके लिए उन्होंने झोपड़ियां बना ली
हरे भरे खेतों तक
शांत छोटी नदी की सरसराहट
यहां अनछुए वन में
गूंज उठी है प्राचीन धुन के साथ
चरवाहे की बांसुरी
तितलियां स्वप्न देखती हैं एक बार वहां होने का
जब प्रचूर वनस्पति ने
सिरजा की मधुर मद्धम धुन को सुना
वहां अभी भी मेरा प्रिय छोटा सा गांव था
हौले -हौले झूल रहें और ठेल रहे जंगलों के संग
धीमे प्रकाश के साथ यहां और वहां
यहां था वह उनके सपनों का खिलना
उतना सुगंधित जितना ताजा खिला फूल
बच्चों की निर्दोष हंसी
जैसे खाम की धड़कन वह यहां थी
बादलों को इशारे से बुलाती
अनछुए खेत सिफंग की धुन पर झूम रहे हैं
अब उन्होंने लंबी इमारतें बना ली हैं
और यहां अपना मुख्य नगर बना लिया है
आग जो वे लाए अब जंगल को जलाती है
यहां-वहां और सर्वत्र
अनछुए खेत और प्रचूर वनस्पति को ठेल रहें हैं
एक असामयिक मौत की ओर
वहां आग है,सर्वत्र आग
अनछुए खेतों में आग
प्रचूर वनस्पतियों में आग
प्रश्न 5— कविता लिखना कोई फास्ट फूड नहीं होता है।किसी कविता का बीज आपके मन में जब उत्पन्न होता है या उसको लिखने का ख्याल आता है, उसके बाद कितने समय में वह एक पूर्ण कविता बन जाती है?
उत्तर— यह बात बताना थोड़ा मुश्किल है कि एक कविता प्रारंभ करने के कितने समय में एक पूर्ण कविता बन जाती है। यह सब कुछ हमारी मनोदशा और मिजाज के ऊपर निर्भर करता है। कभी-कभी एक बार बैठने से ही कविता लिखी जाती है तो कभी बहुत कोशिश करने के बाद भी वह कविता पूर्ण नहीं हो पाती। फिर उस कविता को पूरा करने के लिए दोबारा से कोशिश करनी पड़ती है, कुछ दिनों तक और कभी-कभी महीनों तक भी। ऐसा भी होता है कि कुछ कविताएं कुछ सालों तक अधूरी भी रह जाती हैं।
प्रश्न 6— एक ही विषय पर अनेक कवियों द्वारा लिखा जाता है पर उसकी जो प्रस्तुति होती है, उसका जो शिल्प होता है, वह प्रत्येक की अपनी पहचान होता है। आप अपनी कौन-सी कविता को इस संदर्भ में देखते हैं?
उत्तर— अनेक कवि एक ही भाव और विषय के ऊपर कविताएं लिखते हैं और लिख सकते हैं लेकिन सबका अपना बोलने और लिखने का तरीका होता है। सबका अपना व्यक्तिगत, अलग, अनूठा काव्य शिल्प और प्रस्तुतीकरण होता है, ऐसा मैं मानता हूं। मेरी इस प्रेम कविता को हम इस संदर्भ में ले सकते हैं–
अगर तुम एक गीत होती
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अगर तुम एक गीत होती
तो मैं गा लेता
तुम्हारी धुन में
एक मधुर गीत
तुम्हारी रस भरी बाहों में
समाकर
आंख मूंद लेता
ठहरकर
पसंम
अगर तुम एक गीत होती तो
तुम्हारी धड़कन की गर्माहट में
क्षण भर रहकर
गा लेता सृजन का पहला गीत
तुम्हारे महकते केशों की गहराई में
फाल्गुन की हवा
दिलों- जान को उड़ा ले जाती है
सिमल के फूलों का रंग
मेरे जिगर में
आग की ज्वाला बना एक गीत
समाकर
आंख मूंद लेता है
ठहरकर
पसंम
अगर तुम एक गीत होती तो
तुम्हारी धड़कन की गर्माहट में
क्षण भर रहकर
गा लेता सृजन का पहला गीत
तुम्हारे महकते केशों की गहराई में
फाल्गुन की हवा
दिलों जान को उड़ा ले जाती है
सिमल के फूलों का रंग
प्रश्न 7—अंग्रेजी भाषा भी आप के सन्निकट रही है। क्या बोडो भाषा में लिखते समय किसी अंग्रेजी कवि से भी आपको मार्गदर्शन मिला है और वह किस कविता के माध्यम से मिला है?
उत्तर— मैं अंग्रेजी भाषा की कविताएं पढ़कर ही बड़ा हुआ हूं। इसके साथ-साथ मैंने बोडो, असमिया और हिंदी भाषा का भी अध्ययन किया। बोडो भाषा में लिखते समय इनका अध्ययन मुझे अनुप्रेरणा देता है। इन भाषाओं में सन्निहित महान विचार और उनकी कार्यशैली मुझे अपनी भाषा में कुछ नया सृजन करने के लिए प्रेरित करती रही है।
टी. एस. इलियट, विलियम बटलर, यीट्स की बहुत सी कविताएं मुझे पसंद है और मैं उनसे प्रभावित भी हुआ हूं।
प्रश्न 8— आपके पाठकों को आपकी किस भाषा की कविताएं अधिक पसंद आती है, असमिया, बोडो या अंग्रेजी?
उत्तर— मेरी बोडो भाषा में लिखी गई कविताएं पाठकों को अधिक पसंद आती हैं। बोडो भाषा में लिखी गई कुछ कविताओं का अंग्रेजी, हिंदी और असमिया भाषा में भी अनुवाद हुआ है। अनुदित कविताओं को भी वे पढ़ते हैं पर अधिक पसंद बोडो भाषा में लिखी गई कविताओं को ही करते हैं
प्रश्न 9— क्या आपके अनुसार बोडो भाषा का विकास रुक गया है? उसके विकास के लिए सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा किए जा रहे है प्रयासों के बारे में कुछ बताएं।
उत्तर—-बोडो भाषा के समुन्नत विकास के लिए निरंतर नये- नये कदम उठाए जा रहे हैं। नये-नये साहित्य का सृजन हो रहा है। सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रीय संगठन भी इस कार्य में अपना पूरा योगदान दे रहे हैं। सन् 1952 में स्थापित ‘बोडो साहित्य सभा’ का प्रमुख उद्देश्य ही बोडो भाषा के उत्तरोत्तर विकास यज्ञ में अपना समर्थ योगदान देना है। सभा बोडो भाषा के शब्दकोश के प्रकाशन और इतिहास से जुड़ी विभिन्न कार्य योजनाओं पर कार्य कर रही है। बोडोलैंड स्वायत्तशासी परिषद भी वित्तीय और अन्य प्रकार की सहायता बोडो भाषा के उत्थान के लिए दे रहा है। अब बोडो भाषा असम प्रांत की सहायक प्रशासनिक भाषा है, जिसका पूरा श्रेय इसके विशाल साहित्य जैसे कविताएं, ड्रामा, लघुकथा, उपन्यास आदि को जाता है।
प्रश्न 10—-आपने अपने समय की दो अलग-अलग शताब्दियां देखी हैं। आपको बीसवीं शताब्दी की अपेक्षा इक्कीसवीं शताब्दी में क्या अच्छा लगता है ?
उत्तर—–हमने बीसवीं और इक्कीसवीं दोनों सदियां देखी हैं। एक को आधुनिक भारत, आधुनिक समाज, आधुनिक शिक्षा और नए विचारों की नीवं डालने वाली सदी के रूप में जाना जाता है, तो दूसरी को हम समाज के टूटने, विखंडन और तेजी से शहरीकरण तथा नई डिजिटल प्रौद्योगिकी की ओर बढ़ने वाली सदी के रूप में देखते हैं। मेरे मतानुसार किसी भी सदी को या समय को अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता है, बस हम में से प्रत्येक को इसके बदलावों के साथ सहयोग करके चलना आना चाहिए।
प्रश्न 11—बोडो सामुदायिक क्षेत्र पहले एक आदिवासी क्षेत्र रहा है। क्या यह आज भी है? इसको आधुनिक बनाने के प्रयास कितने सही या गलत हैं। बोडो क्षेत्र में शिक्षा की सुविधाओं, स्कूल -कॉलेजों के विकास के बारे में बताएं।
उत्तर—बोडो क्षेत्र हमेशा से ही एक जनजातीय क्षेत्र रहा है। समय के साथ-साथ आधुनिकीकरण का प्रयास होना ही चाहिए क्योंकि समय के साथ आगे बढ़ना आवश्यक होता है। लेकिन इसके साथ-साथ अपनी संस्कृति और सभ्यता का संरक्षण भी बहुत आवश्यक है। बोडो क्षेत्रों में भी शिक्षा की सुविधाएं और स्कूल- कॉलेजों की संख्या बढ़ी जरूर है पर फिर भी मूलभूत सुविधाओं की कमी है और स्कूल- कॉलेजों की संख्या अभी भी कम है। बोडो संगठनों के व्यापक सामाजिक और राजनैतिक जनजागरण और सक्रिय आंदोलनों के बाद सन् 1963 से बोडो बहुल क्षेत्रों में इस भाषा को प्राइमरी शिक्षा के माध्यम का दर्जा मिला और उसके बाद सन् 1996 में गुवाहाटी विश्वविद्यालय ने भी बोडो भाषा को अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया।
प्रश्न 12—आपके लिए ‘बोडो‘ एक अपमानजनक शब्द है या अभिमान जनक ?
उत्तर—मेरे लिए ‘बोडो’ शब्द किसी भी तरह से एक अपमानजनक शब्द नहीं है। मुझे अपने बोडो होने पर अभिमान है क्योंकि बोडो एक प्रकृतिनिष्ठ जनजाति है। मेरी अपनी पहचान मेरे बोडो होने से ही है और मुझे उस पर गर्व भी है।
साक्षात्कारकर्ता
अंशु सारडा’अन्वि’
स्वतंत्र लेखिका/ कॉलमनिस्ट
गुवाहाटी, असम